कहानी संग्रह >> बियाबान में बियाबान मेंसारा राय
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Biyaban Mein a hindi book by Sara Ray - बियाबान में - सारा राय
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
सारा राय की कहानियाँ अनेक स्तरों पर सजग चेतना द्वारा रचित संसार है। उनके यहाँ भीतर की सम्पन्नता और भीतर का खालीपन, बाहर की सम्पन्नता और बाहर का उजाड़ एक-दूसरे के आमने-सामने होते रहते हैं, बल्कि एक-दूसरे के बरक्स रखे आइनों की तरह वे परस्पर को कई गुना करते चलते हैं। व्यक्त और अव्यक्त यथार्थ एक-दूसरे के साथ नाजुक संतुलन साधते हुए एक सम्पूर्ण अनुभव की रचना करते हैं।
दृश्य, परिवेश, पात्र और अनुभव का ही नहीं, समय का भी एक पूरेपन के करीब ले जाता हुआ बोध, यानी एक साथ भंगुरता और अन्तहीनता का बोध उनकी कहानियों में आपको कभी भी हो सकता है। इसी तरह किसी सीमित घटना या क्रिया का किसी अन्तहीनता में फिसल जाना उसे एक दूसरे ही आयाम में ले जाता है और सीमित जीवन काल के आर-पार फैला अनन्त समय बड़ी सहजता से आपके समय बोध का हिस्सा बन जाता है। एक साथ समय की रवानी और ठहराव का चित्र उनके यहाँ कुछ यों उभरता है-‘‘समय के बड़े-बड़े चकत्ते तैरते हुए निकल जाते हैं, जैसे वे कुछ हों ही न। ऐसा लगता है जैसे एक दिन एक-एक करके नहीं, कई-कई के झुंड में बीत रहे हों, कभी-कभी पूरा एक मौसम एक अकेले दिन की तरह निकल जाता है।’’
सारा राय की ताक़त उनके बहुत बारीक, बहुत मामूली मगर उन चुने हुए ब्यौरों में है, जिन्हें वह भीतरी और बाहरी दुनिया के तानों बानों से कुछ इस तरह बुनती है कि एक रहस्य सा उनके इर्द-गिर्द घिर आता है। ये रहस्य उनकी कहानियों को हर बार पढ़ने पर नये सिरे से खुलता है। उनके बिम्ब, उनकी उपमाएँ हम सबकी जानी-पहचानी चीजों को एकदम अछूता-सा कोई सन्दर्भ देकर ऐसा एक मायालोक खड़ा कर देती हैं जिसमें सेमल की फलियों से उड़ती रूई बर्फ के तूफान में बदल जा सकती हैं, आसमान कुएँ में पड़े रुमाल में, लाल स्वेटर पहने स्कूल के फाटक से लुढ़कते-पुढ़कते बच्चे बीर बहुटियों में और ‘‘आह सारा ! द होल वर्ल्ड !’’ कहते हुए पकड़ाई गई पनीर पूरी एक दुनिया में तब्दील हो जा सकती है।
किसी भी सम्बन्ध को परिणति तक पहुँचाने की हड़बड़ी उनके यहाँ नहीं है। सम्बन्धों के महीन रेशों को वे हल्के इशारों से कहे-अनकहे शब्दों में, बिम्बों में थामती हैं। वो ‘बियाबान में’ कहानी की नायिका का लेखन के साथ रिश्ता हो या रश्मि किरण के साथ का, ‘परिदृश्य’ कहानी की सीमी का अनामिका और उसके भाई के साथ धीरे-धीरे अस्तित्व में आया सम्बन्ध हो, मकड़ी के जाले की सुन्दर संरचना के निमित्त, बाबू देवीदीन सहाय का अपनी रूह के साथ पहली बार स्थापित हुआ सम्बन्ध हो या अनामिका का गंगा के कछार के साथ का तादाम्य हो-ये सम्बन्ध जितनी देर के लिए, जितने भी, जैसे भी होते हैं, अपनी सम्पूर्ण सत्ता के साथ होते हैं। गंगा का कछार अलग मौसम में, किसी दूसरे समय पर, किसी अलग मनःस्थितियों में अलग ही रूप धर ले सकता है।
‘भूल-भुलैया’ जैसी कहानी में वे भव्य अतीत के कोणों-अंतरों को तलाशती है। इस प्रक्रिया में अतीत के साथ-साथ सम्भावित का भी एक लोक खुलता चला जाता है। बनारस की साकीन नूरमंजिल हवेली के साथ उस प्राचीन वैभव-‘‘जब हर कमरे में लोग अंगूर के गुच्छों की तरह होते थे’’-के बरक्स बची थीं ‘‘किले की दीवार जैसे कंधों वाले सैयद हैदर की बड़ी बेटी कुलसुम बानो, जिन्हें नूरमंजिल जैसी विशाल हवेली में बन्द रहने के बावजूद नाचने और नाचते-नाचते लट्टू की तरह एक जगह सिमट आने के तथा छत की काई लगी काली मुंडेर से डैनों की तरह बाजुओं को फैलाकर उड़ने के एहसास से कोई वंचित नहीं कर पाया था।
दुनिया में कुछ भी ऐसा नहीं जिससे सारा को परहेज़ हो। आज की कहानी की तरह सिर्फ लोगों को ही नहीं, सब कुछ को उनकी कहानियों में आने की छूट है। लोगों के अलावा ‘बियाबान में’ की लुटी-पिटी पुरानी खंडहर बस हो, कहीं नहीं से कहीं नहीं तक जाता पुल हो, मेक्वायरी का चार एकड़ का बीहड़ हो, गंगा के किनारे तम्बुओं, लाइटों का उग आया नया नगर हो, हरी आग की तरह सारे में फैल जाने वाली लम्बी-लम्बी घास हो, पूरी सृष्टि ही चली आती है जीवन की सी सहजता के साथ। रामबाँस पर तीस सालों में सिर्फ एक बार आने वाला फूल भी नहीं बचता उनकी आँख से। सुनहरी कलियों का वह नजारा मालती को एक उपलब्धी की तरह लगता है और दो दीवारों के बीच एक मकड़ी का जाल बाबू देवीदीन सहाय के साथ हमें भी एक करिश्मे की तरह लगता है। इन छोटी-छोटी चीजों की एक करिश्मे की शक्ल में पहचान और जीवन में इनकी जादुई उपस्थिति में सारा की गहरी आस्था है।
उनके यहाँ हिन्दी के पूर्ववर्ती कथाकारों की अनुगूँज के साथ खुद उनकी रोयों की तरह संवेदनशील और उड़ानक्षमता भाषा का विरल संयोजन है। चीज़ों को देखने का, उसे भाषा में सहेजने का सारा ढंग अनोखा है। चीज़ें और उनका आस-पास वही है जिसे हम सब रोज़ देखते हैं या नहीं देखते। उन्हें सारा के साथ उनकी आँख से देखना आज की हिन्दी कहानी के परिदृश्य में एक अलग तरह का देखना है। ‘‘ऊपर का आकाश डालों से घटाटोप हो उठा और जमीन पर बरगद ने जड़ों के महल खड़े किये, कई-कई महल, एक दूसरे की अनुगूँज की तरह।’’
दृश्य, परिवेश, पात्र और अनुभव का ही नहीं, समय का भी एक पूरेपन के करीब ले जाता हुआ बोध, यानी एक साथ भंगुरता और अन्तहीनता का बोध उनकी कहानियों में आपको कभी भी हो सकता है। इसी तरह किसी सीमित घटना या क्रिया का किसी अन्तहीनता में फिसल जाना उसे एक दूसरे ही आयाम में ले जाता है और सीमित जीवन काल के आर-पार फैला अनन्त समय बड़ी सहजता से आपके समय बोध का हिस्सा बन जाता है। एक साथ समय की रवानी और ठहराव का चित्र उनके यहाँ कुछ यों उभरता है-‘‘समय के बड़े-बड़े चकत्ते तैरते हुए निकल जाते हैं, जैसे वे कुछ हों ही न। ऐसा लगता है जैसे एक दिन एक-एक करके नहीं, कई-कई के झुंड में बीत रहे हों, कभी-कभी पूरा एक मौसम एक अकेले दिन की तरह निकल जाता है।’’
सारा राय की ताक़त उनके बहुत बारीक, बहुत मामूली मगर उन चुने हुए ब्यौरों में है, जिन्हें वह भीतरी और बाहरी दुनिया के तानों बानों से कुछ इस तरह बुनती है कि एक रहस्य सा उनके इर्द-गिर्द घिर आता है। ये रहस्य उनकी कहानियों को हर बार पढ़ने पर नये सिरे से खुलता है। उनके बिम्ब, उनकी उपमाएँ हम सबकी जानी-पहचानी चीजों को एकदम अछूता-सा कोई सन्दर्भ देकर ऐसा एक मायालोक खड़ा कर देती हैं जिसमें सेमल की फलियों से उड़ती रूई बर्फ के तूफान में बदल जा सकती हैं, आसमान कुएँ में पड़े रुमाल में, लाल स्वेटर पहने स्कूल के फाटक से लुढ़कते-पुढ़कते बच्चे बीर बहुटियों में और ‘‘आह सारा ! द होल वर्ल्ड !’’ कहते हुए पकड़ाई गई पनीर पूरी एक दुनिया में तब्दील हो जा सकती है।
किसी भी सम्बन्ध को परिणति तक पहुँचाने की हड़बड़ी उनके यहाँ नहीं है। सम्बन्धों के महीन रेशों को वे हल्के इशारों से कहे-अनकहे शब्दों में, बिम्बों में थामती हैं। वो ‘बियाबान में’ कहानी की नायिका का लेखन के साथ रिश्ता हो या रश्मि किरण के साथ का, ‘परिदृश्य’ कहानी की सीमी का अनामिका और उसके भाई के साथ धीरे-धीरे अस्तित्व में आया सम्बन्ध हो, मकड़ी के जाले की सुन्दर संरचना के निमित्त, बाबू देवीदीन सहाय का अपनी रूह के साथ पहली बार स्थापित हुआ सम्बन्ध हो या अनामिका का गंगा के कछार के साथ का तादाम्य हो-ये सम्बन्ध जितनी देर के लिए, जितने भी, जैसे भी होते हैं, अपनी सम्पूर्ण सत्ता के साथ होते हैं। गंगा का कछार अलग मौसम में, किसी दूसरे समय पर, किसी अलग मनःस्थितियों में अलग ही रूप धर ले सकता है।
‘भूल-भुलैया’ जैसी कहानी में वे भव्य अतीत के कोणों-अंतरों को तलाशती है। इस प्रक्रिया में अतीत के साथ-साथ सम्भावित का भी एक लोक खुलता चला जाता है। बनारस की साकीन नूरमंजिल हवेली के साथ उस प्राचीन वैभव-‘‘जब हर कमरे में लोग अंगूर के गुच्छों की तरह होते थे’’-के बरक्स बची थीं ‘‘किले की दीवार जैसे कंधों वाले सैयद हैदर की बड़ी बेटी कुलसुम बानो, जिन्हें नूरमंजिल जैसी विशाल हवेली में बन्द रहने के बावजूद नाचने और नाचते-नाचते लट्टू की तरह एक जगह सिमट आने के तथा छत की काई लगी काली मुंडेर से डैनों की तरह बाजुओं को फैलाकर उड़ने के एहसास से कोई वंचित नहीं कर पाया था।
दुनिया में कुछ भी ऐसा नहीं जिससे सारा को परहेज़ हो। आज की कहानी की तरह सिर्फ लोगों को ही नहीं, सब कुछ को उनकी कहानियों में आने की छूट है। लोगों के अलावा ‘बियाबान में’ की लुटी-पिटी पुरानी खंडहर बस हो, कहीं नहीं से कहीं नहीं तक जाता पुल हो, मेक्वायरी का चार एकड़ का बीहड़ हो, गंगा के किनारे तम्बुओं, लाइटों का उग आया नया नगर हो, हरी आग की तरह सारे में फैल जाने वाली लम्बी-लम्बी घास हो, पूरी सृष्टि ही चली आती है जीवन की सी सहजता के साथ। रामबाँस पर तीस सालों में सिर्फ एक बार आने वाला फूल भी नहीं बचता उनकी आँख से। सुनहरी कलियों का वह नजारा मालती को एक उपलब्धी की तरह लगता है और दो दीवारों के बीच एक मकड़ी का जाल बाबू देवीदीन सहाय के साथ हमें भी एक करिश्मे की तरह लगता है। इन छोटी-छोटी चीजों की एक करिश्मे की शक्ल में पहचान और जीवन में इनकी जादुई उपस्थिति में सारा की गहरी आस्था है।
उनके यहाँ हिन्दी के पूर्ववर्ती कथाकारों की अनुगूँज के साथ खुद उनकी रोयों की तरह संवेदनशील और उड़ानक्षमता भाषा का विरल संयोजन है। चीज़ों को देखने का, उसे भाषा में सहेजने का सारा ढंग अनोखा है। चीज़ें और उनका आस-पास वही है जिसे हम सब रोज़ देखते हैं या नहीं देखते। उन्हें सारा के साथ उनकी आँख से देखना आज की हिन्दी कहानी के परिदृश्य में एक अलग तरह का देखना है। ‘‘ऊपर का आकाश डालों से घटाटोप हो उठा और जमीन पर बरगद ने जड़ों के महल खड़े किये, कई-कई महल, एक दूसरे की अनुगूँज की तरह।’’
अमरवल्लरी
‘मैक्वायरी’ का भी सौदा आख़िर पट गया। वह उजड़ा हुआ बदनाम हाता, जो अपने घने अँधेरों की फ़ौज लिए न जाने कब से शहर के सम्पन्न संयोजित इलाके की जगमगाहट को चुनौती दिए हुए था, विकास के रास्ते पर तेज़ी से बढ़ते हुए शहर को वापस अराजकता और अव्यवस्था की दिशा में बड़ी मुस्तैदी के साथ घसीट रहा था। शहर के बीचोबीच अँधेरे और रहस्य के पूरे चार एकड़। आख़िर शहर के और बँगलों की तरह यह भी बिक रहा है। अंग्रेज़ों के जमाने में बने यह सभी मकान एक-एक करके ताश के पत्ते के घरों की तरह गिर रहे हैं। सो, ‘मैक्वायरी’ भी।
रात को साइकिल चलाते हुए ‘मैक्वायरी’ के सामने से गुज़रो तो पैर खुद बखुद पैडल पर ज़्यादा तेज़ी से चलने लगते थे, फिर भी पीछे मुड़-मुड़कर उस टूटी हुई चहारदीवारी के अन्दर झाँकने का लोभ त्यागना आसान नहीं था। चहारदावीरी के अन्दर अँधेरे में विचरते आकारों को बूझने की इच्छा हर बार उसी तरह से मन में उठ आती थी, बरगद के काले साए के नीचे क्या कोई आदमी बैठा है या कि वह झाड़ी है या, भगवान न करे, दूसरे लोक का कोई प्राणी ? रात को गाँजे की मीठी खुश्बू हाते में उठती है। चिंगारियाँ जलती हुई दिखती हैं जो लाल पंखुड़ियों की तरह हवा में बिखर जाती हैं। कौन नहीं जानता कि बरसों से इस उजड़े हुए हाते के अन्दर शहर के आवारा और बदमाश सभ्य समाज से निष्कासित लोग, शाम को ताश के पत्ते और सस्ती दारू की पन्नियाँ लेकर जमा होते हैं। चौपड़ जमती है। समाज के हाशिए के अन्दर रहने वाले सम्मान्य, सज्जन लोग इस तरफ़ रुख़ नहीं करते।
हममें से जो ज़्यादा पुराने हैं, उन्हें याद है ‘मैक्वायरी’ के दूसरे दिन, जब वीराना उस परहावी नहीं हुआ था। जब वह साफ-सुथरा नियन्त्रित था। लालमणि वर्मा, पुराने वकील के दिनों में। लालमणि वर्मा, अंग्रेज के बाप। लग्गी की तरह लम्बे सिर पर बोलर हैट हाथ में बेंत और मुँह पर ताला; शाम को वह टहलने निकलते थे तो उनके पास जाकर बात करने की किसी की हिम्मत नहीं होती थी। उनके इर्द-गिर्द दूरी और सन्नाटे का एक घेरा बना रहता था। वह कब बोलते थे ? निजी तौर पर किसी को इसका ज्ञान न था। वह कवच के अन्दर रहनेवाले आदमी थे। पत्नी की मृत्यु के बाद वह ‘मैक्वायरी’ में अपने बड़े से ‘लैब्राडोर’ कुत्ते के साथ रहने लगे थे। साँझ को उनका तन्हा आकार रोज़ कैंट की तरफ़ जाता हुआ नज़र आ जाता था। दिन पर दिन वह अपने में और समाते चले गए थे, ऐसा लोगों का कहना था। यहाँ तक कि फिर उनका बाहर दिखना भी बन्द हो गया। और एक शाम, या कौन जाने सुबह या दोपहर को उन्होंने मन के किस उबाल में अपने को छत की धरणी से टाँग लिया, जहाँ दूधवाले ने दूसरी सुबह उन्हें लटका हुआ पाया। उनकी मौत का रहस्य कभी नहीं खुला, बल्कि धुँए की तरह हमेशा बँगले पर छाया रहा।
रहस्य कभी नहीं खुला मगर इसका मतलब यह नहीं कि उसको लेकर सैकड़ों कहानियाँ नहीं गढ़ी गईं जो बरसों तक शहर में फुसफुसाई गईं। इन कहानियों ने शहर के बाशिन्दों की कल्पनाशक्ति को पूरी तरह अपनी गिरफ्त में कर लिया, बहुत दिनों तक। यहाँ तक कि बूढ़ा मुरली अब कस्में खाता है कि ‘मैक्वायरी’ के बियाबान फैलाव में बकरियाँ चराते हुए उसने लालमणि वर्मा की लाश पीपल से लटकती ज़्यादा दूर नहीं सिर्फ़ सौ गज की दूसरी पर अपनी आँखों से देखी है। जबकि लाश तो पीपल पर नहीं, कमरे के अन्दर पाई गई थी। लाश असली थी या सिर्फ़ उसके घबराए हुए दिमाग का फितूर उसकी चीख़ दिल दहलाने वाली थी, जो इतने बरसों बाद भी ख़ामोश होकर समय किसी जाल में अटक गई है। शाम को दोस्तों और कुनबे के बीच वह उस मंजर का बयान करता है तो आज भी रोंगटे खड़े हो जाते हैं।
सुना गया था कि लालमणि वर्मा ने ‘मैक्वायरी’ को किसी एमिली जॉनसन से ख़रीदा था। बँगले के तिकोने माथे पर तारीख सीमेंट के हरफ़ों में अब भी लिखी है-1911, काई और कालिख में छुपी हुई। तभी से बँगला मौजूद है। तभी के उसके हरे लॉन और फूलों की क्यारियाँ, अमरूद और आम के बाग़ान, बगीचे के तब एकदम किनारे खड़े ऊँचे पेड़, अवचेतन के विचारों की तरह। जो धीमे-धीमे करके सारे हाते पर हावी होते गए, यहाँ तक कि जंगल ने आख़िर बँगले को अपना लिया जैसे वह बरसों से गुमराह उसका बच्चा हो।
रविशों पर घास उगने लगी, करीने से कटे लॉन पर नागर मोथे ने घर में घुसे भेदी के दाँव पेंच के साथ काबू पा लिया; सरो, जबाकुसुम और इन्द्रबेला की अमरवल्लरी ने आलिंगन में कस लिया। अमरवल्लरी, वह शाश्वत की प्रतिनिधि जो हर पेड़, हर झाड़ी, हर डाल पर चढ़कर फैल जाती है और चढ़कर फिर कभी नहीं उतरती, कभी नहीं मरती। जो धरती से न उपजे तो भी हर जगह हो जाती है, हर चीज़ से जन्म लेती है, हवा से, पानी से आसमान से चिड़िया से, कुछ भी नहीं से। ‘मैक्वायरी’ के चार आजाद एकड़ों पर अमरवल्लरी रातोंरात फैल गई। नीम और शीशम और जामुन, पाकड़ और पीपल और पलाश ने भी अपने-अपने गणतन्त्र कायम किए। ऊपर का आकाश डालों से घटाटोप हो उठा और ज़मीन पर बरगद ने जडों के महल खड़े किए, कई-कई महल, एक-दूसरे की अनुगूँज की तरह। देखते-देखते वीरान बँगले पर जंगल का सिक्का जम गया। लोमड़ी, सियार और साही जो बँगले के दूसरे दिनों में अपने को लिए दिए रहते थे, राहजनों की तरह खुले खजाने निकलकर टहलने लगे और चाँदनी रातों पर हुक्का हुँआ कि आवाज़ें सड़क पर चलनेवालों को भी सुनाई देने लगीं। और पक्षी तो ख़ैर हमेशा से थे, बाज और हरियल और धनेष ज़मीन और आसमान की ख़बर रखते हुए।
‘मैक्वायरी’ अब किसका है, यह भी मामला कुछ अस्पष्ट है। लालमणि वर्मा के बच्चे नहीं थे। कैलाश बनिया, जो इस इलाके का ‘पुरनिया’ है, बताता है कि उनका एक भतीजा है, विलायत में कहीं वह भी अब ख़ासा बूढ़ा हो चुका होगा। वह क्या लौटेगा। इस बीच त्यागी नाम का एक बदमाश अपने को लालमणि वर्मा का मुँहबोला बेटा कहने लगा है और यह भी सुनने में आया कि नगर विकास प्राधिकरण में कुछ गड्डमगोल करके उसने बँगला अपने नाम करवा लिया है। चिकना चुपड़ा जबान में शीरीनी घोले न जाने कहाँ से टपक पड़ा है इतने बरसों बाद। वही है जो ‘मैक्वायरी को बेच रहा है। जब से सरकार ने ज़मीन से ताल्लुक रखते क़ानून बदल दिए, ज़रूर रकम अदा करके ‘लीजहोल्ड’ ज़मीन ‘फ्रीहोल्ड’ में बदल ली गई है और कीमतें आसमान छूने लगी हैं। पूरा शहर ही जैसे बिक रहा हो। हर तरफ इश्तहार और खरीदारों की आवाजाही दलालों की रोजी चल पड़ी है और जहाँ शहर का खुला हवादार फैलाव था वहाँ ऊँची इमारतें राज़दारों की तरह सिर जोड़े खड़ी हैं।
जो ‘मैक्वायरी’ में कभी गया ही नहीं, वह उस जगह के जादू को क्या जानेगा। संयोजित जाने बूझे शहर के बीचोबीच वह एकमात्र अनजान का दायरा जिसके बीहड़ सन्नाटे ने वक्त वक्त पर मोहल्ले के सभी लड़कों को और लड़कियों को भी, कभी-कभी चुम्बकीय आकर्षण के साथ अपनी ओर खींचा है। घनी लंटाना की झाड़ियों के बीच से रास्ता, तराशता तेज़ी से धड़कता दिल लिए वह वहाँ पहुँचा है तो जगह को पहले से आबाद पाया है-काँटे पर अटका रुमाल, कान से कान तक मुस्कुराता फिंका हुआ जूता, फटी हुई नीली कमीज, आम के नीचे जल वनस्पति से उलझे पोखर में तैरता अलमुनियम का चम्मच-ऐसा नहीं कि यहाँ कोई नहीं आता।
फिर चिपकनेवाली घास और चुटपुटिया झँकाड़ पर पैर खरोंचता-चिकनी खाल पर माणिक की लड़ी वह दूसरे छोर पर पहुँचता है। कितनी उलझी हुई लम्बाई चार एकड़ जब वह अंकों की सीमा में बाँध दी गई-मगर तब बचपन के दिनों जितनी ही लम्बी। इमली की मोटी डालों के बीच छुपकर वह पढ़ता है, किताबें रोमांच से भरी, घर में मना है, और वक्त ठहर जाता है। फिर स्कूल से, जहाँ के नीरस रुटीन से उसने एक दिन चुरा लिया है, और लड़के लौटते हैं और साइकिल की घंटी उसे दूर से सुनाई दे जाती है, वह डालों से उतरता है, जैसे कि माँ की गोद से, और साइकिलवाले ‘गैंग’ के साथ हो लेता है।
वह गैंग कब का तितर-बितर हो चुका। कोई देश के उस कोने में, कोई दुनिया के। जो शहर में रह गए, वह भी कम मिलते हैं। उन दिनों की तरह नहीं जब खिड़की के बाहर धीमी सीटी की आवाज़ ‘मैक्वायरी’ के खतरों से भरे जंगल के बीच मिलने का न्योता होता था। वह जो कहीं नहीं गया, जो शहर में रह गया, बीसों साल बाद घुटने पर लगी पुरानी चोट के आकार में के जंगल को ढूँढ़ता है, और जंगल के भीतर उस इन्द्रधनुषी गेंद के जो किसी प्राचीन दोपहर में उसने वहाँ खोई थी। जो दूर उछलकर झाड़ियों में जा गिरी थी और हरे के अंदर हरे के अंदर हरे के अंदर हरे में वह ढूँढ़ता चला गया था; आज भी हरा रंग देखकर वह कुछ देर सन्नाटे में चला जाता है। नहीं मिली थी गेंद मगर अचम्भे से साँस खींचकर उसने पाया था अमरवल्लरी से ढकी झाड़ी के नीचे बिछी चाँदनी की चादर। पंखेनुमा पंखुड़ियोंवाले सफ़ेद फूल अकेले में ज़मीन पर बिखरे हुए।
झुटपुटे के वक़्त छुपनछुपाई खेलते में वह घंटों तक अमरवल्लरी में उलझा है, टूटी टहनियों से टकराया है और सूखे पत्तों की खड़खड़ाहट के पीछे साँसों को पकड़ने की कोशिश करता रहा है। हर झाड़ी में आँखें हैं, टाँगें और हाथ और जंगल के बीच अकेला खड़ा, साथियों को ढूँढ़ने में असफल, उस लम्बे क्षण की हार को वह अपनी त्वचा के नीचे आज भी महसूस करता है। और वही क्षण क्यों, वह जगह ही ऐसी है कि पूरी की पूरी उसके मानस में घुली बैठी है, किसी आत्मीय ज्ञान की तरह।
उन साथियों में से कुछ कभी-कभार दिख जाते हैं, किसी जलसे में या स्कूल में जहाँ वे बच्चों को पहुँचाने या लेने आते हैं। उस स्कूल में जहाँ वह भूगोल का अध्यापक है और बच्चों को दक्षिण अमेरिका में ओरिनोको नदी के बारे में पढ़ाता है। ओरिनोको के तट पर घने जंगल जिनकी ज़मीन से पत्थर के पठार सिर उठाते हैं, पाषाण मुणियों की तरह। मगर जंगल के नाम से उसे वही वीराना याद आता है-‘मैक्वायरी’ और जानता है कि साथियों के उम्र की चर्बी से गोलमटोल चेहरे के मुखौटों के नीचे वह मुलाकातें और खेल और अमरवल्लरी अभी मौजूद है क्योंकि अमरवल्लरी कभी मरती नहीं।
बाद में, बहुत बाद में, बदनाम ‘मैक्वायरी’ का नाम बदनाम इन्द्रानी से भी जुड़ गया। जिसको सुनसान दोपहरों में अकसर उजाड़ हाते के अन्दर जाते देखा गया-हमेशा किसी नए के साथ। उसका ज़ल्दी से सिर घुमाकर इधर-उधर सड़क पर देखना और झट से झाड़ियों में लुप्त हो जाना। इन्द्रानी, जिसकी माँ ने बचपन में ही, गरीबी के कारण उसे अनाथाश्रम के हवाले कर दिया और वह ‘मैक्वायरी’ के जंगली पौधे की तरह बढ़ती रही, बिना किसी रोक टोक के। वह किसी के भी साथ जाने को तैयार हो जाएगी, ऐसी अफवाह थी, उसके बारे में। उन्हीं दिनों बरगद के नीचे मैले चिथड़े में लिपटी पाई गई कुछ दिनों की बच्ची के खड़े नाक-नक्शे को चोरी-छिप्पे देखकर मोहल्ले के छैलों ने अपने को आश्वस्त किया कि कहीं शक्ल उनसे तो नहीं मिलती। क्या हुई वह बच्ची और कहाँ गई इन्द्रानी आख़िर में, कोई नहीं था जो तफ़तीश करता।
और तीन गोलियाँ हवा में फायर की थीं शेर अली ने जब वह ‘मैक्वायरी’ की चहारदीवारी एक छलाँग में साफ़ लाँघता हाते में घुसा था। पुलिस उसे बेतहाशा खदेड़ती हुई पीछे-पीछे आई पर ‘मैक्वायरी’ का जंगल तो उसका जाना हुआ इलाका था, मिनटों में वह हुर्र हो गया। शेर अली गुडा जो गरीबों के मददगार की तरह मशहूर था और जो किसी सेठ का खून करके भागा था। छान मारा पुलिस ने ‘‘मैक्वायरी’’ को मगर शेर अली तो जैसे छूमन्तर हो गया था। उसकी तीन गोलियों के जलते धुँए की बू और कड़ाकेदार आवाज़ हो न हो ‘मैक्वायरी’ की फ़िजा की तहों में अब भी कहीं दबी पड़ी है। स्कूल जाते में वह ‘मैक्वायरी’ के सामने से गुज़रता है तो बचपन की एक धुँधली सी छवि उसकी आँखों में उभरती है। ‘मैक्वायरी’ के बाहर पुलिया पर बैठा बीड़ी पीता शेर अली, बुर्राफ सफ़ेद मलमल का कुर्ता, घनी और नर्म मूँछें, पैनी आँखें गोरा चिट्टा। सभी को मालूम था कि वह अफ़ग़ान है।
‘मैक्वायरी’ के बिक जाने की खबर पाते ही आसपास के अपार्टमेंट में रहते लोगों ने चैन की साँस ली है। रात को वे गफलत से सो सकेंगे, अब उनका दिल हर अनजानी आवाज़ पर नहीं धड़केगा हर खटके पर वह बिस्तर में तड़बड़ाकर नहीं बैठ जाएँगे। और वह घना अँधेरा ‘मैक्वायरी’ की हदें पार करके उनके घरों की तरफ तो नहीं बढ़ेगा, जैसे कोई विशाल रोशनदाई की बोतल उलट गई हो और स्याही उन्हीं की तरफ बहती चली आ रही हो। अब वह सन्दिग्ध हाता साफ़ कर दिया जाएगा; वह हाता जो एक बड़े से प्रश्नचिन्ह की तरह उनके दुःस्वप्नों में बार-बार लौटता है। आख़िर इस घर में रात के अँधेरे में क्या कारगुज़ारी होती है। इतने अँधेरे में, साँप बिच्छू से डरे बग़ैर तो सिर्फ़ चोर उचक्के ही फिर सकते हैं। दो नम्बर का ही काम यहाँ हो सकता है, चलो, क़ानूनपसन्द मध्यवर्ग के पड़ोसियों कोइन बेहूदगियों से तो निजात मिलेगी।
सुना है अब यहाँ कमर्शियल कॉम्प्लेक्स बनेगा। ऊँची-ऊँची जगमगाती हुई ‘हाई राइज़’ इमारतें जिनके शीशे की दीवारें आइना बनकर आसमान को ललकारेंगी। ढेरों दफ़्तर इनमें खुलेंगे, शॉपिंग मॉल भी और सिनेमा घर और बरिस्ता और मैकडॉनल्ड और डिस्को। बड़े शहरों की सभी सहूलियतें जिनके लिए इस शहर के निवासी तरसते थे अब उनकी पहुँच के दायरे में आ जाएँगी। रोशनियों की बारात में वह अजनबी अँधेरे कभी लौट न सकेंगे और न ही आर.सी.सी. के पक्के रास्तों पर घास का एक तिनका भी सिर उठा पाएगा। तो फिर बुलडोजर आएँगे, आरा मशीनें और ट्रकें जिनमें ईंटे-गारे, लोहे-लक्कड़ का मलबा भर-भरके यहाँ से जाएगा। पुराने और विशाल पेड़, ढाई-ढाई फुट चौड़े तनेवाले दर्दनाक कराह के साथ गिरेंगे और उनके गिरने से भूचाल ही बस आ जाएगा। तनों की बोटियाँ की जाएँगी, अन्दर से लहू के रंग की, जो ट्रकों पर लदकर रवाना होंगी और कुछ दिनों तक हवा में कटी लकड़ी और कुचले पत्तों की बू के अलावा कुछ न होगा।
मगर इन सबके बावजूद, जब आख़िरी पेड़ का आख़िरी पत्ता यहाँ से हटा दिया जाएगा, अमरवल्लरी कहीं पर आज़ादी से फैलती रहेगी; अमरवल्लरी जो कुछ भी नहीं से हो जाती है और कभी नहीं मरती। रोशनी और जगमगाहट की एक मंजिल से दूसरी मंजिल तक सफर करते हुए शहर के निवासी कुछ देर ठिठकेंगे और पाएँगे कि मन के आदिम अँधेरों में अमरवल्लरी ने अपनी जगह ढूँढ़ ली है। क्योंकि अमरवल्लरी तो ऐसी ही होती है, वह मरती ही नहीं।
रात को साइकिल चलाते हुए ‘मैक्वायरी’ के सामने से गुज़रो तो पैर खुद बखुद पैडल पर ज़्यादा तेज़ी से चलने लगते थे, फिर भी पीछे मुड़-मुड़कर उस टूटी हुई चहारदीवारी के अन्दर झाँकने का लोभ त्यागना आसान नहीं था। चहारदावीरी के अन्दर अँधेरे में विचरते आकारों को बूझने की इच्छा हर बार उसी तरह से मन में उठ आती थी, बरगद के काले साए के नीचे क्या कोई आदमी बैठा है या कि वह झाड़ी है या, भगवान न करे, दूसरे लोक का कोई प्राणी ? रात को गाँजे की मीठी खुश्बू हाते में उठती है। चिंगारियाँ जलती हुई दिखती हैं जो लाल पंखुड़ियों की तरह हवा में बिखर जाती हैं। कौन नहीं जानता कि बरसों से इस उजड़े हुए हाते के अन्दर शहर के आवारा और बदमाश सभ्य समाज से निष्कासित लोग, शाम को ताश के पत्ते और सस्ती दारू की पन्नियाँ लेकर जमा होते हैं। चौपड़ जमती है। समाज के हाशिए के अन्दर रहने वाले सम्मान्य, सज्जन लोग इस तरफ़ रुख़ नहीं करते।
हममें से जो ज़्यादा पुराने हैं, उन्हें याद है ‘मैक्वायरी’ के दूसरे दिन, जब वीराना उस परहावी नहीं हुआ था। जब वह साफ-सुथरा नियन्त्रित था। लालमणि वर्मा, पुराने वकील के दिनों में। लालमणि वर्मा, अंग्रेज के बाप। लग्गी की तरह लम्बे सिर पर बोलर हैट हाथ में बेंत और मुँह पर ताला; शाम को वह टहलने निकलते थे तो उनके पास जाकर बात करने की किसी की हिम्मत नहीं होती थी। उनके इर्द-गिर्द दूरी और सन्नाटे का एक घेरा बना रहता था। वह कब बोलते थे ? निजी तौर पर किसी को इसका ज्ञान न था। वह कवच के अन्दर रहनेवाले आदमी थे। पत्नी की मृत्यु के बाद वह ‘मैक्वायरी’ में अपने बड़े से ‘लैब्राडोर’ कुत्ते के साथ रहने लगे थे। साँझ को उनका तन्हा आकार रोज़ कैंट की तरफ़ जाता हुआ नज़र आ जाता था। दिन पर दिन वह अपने में और समाते चले गए थे, ऐसा लोगों का कहना था। यहाँ तक कि फिर उनका बाहर दिखना भी बन्द हो गया। और एक शाम, या कौन जाने सुबह या दोपहर को उन्होंने मन के किस उबाल में अपने को छत की धरणी से टाँग लिया, जहाँ दूधवाले ने दूसरी सुबह उन्हें लटका हुआ पाया। उनकी मौत का रहस्य कभी नहीं खुला, बल्कि धुँए की तरह हमेशा बँगले पर छाया रहा।
रहस्य कभी नहीं खुला मगर इसका मतलब यह नहीं कि उसको लेकर सैकड़ों कहानियाँ नहीं गढ़ी गईं जो बरसों तक शहर में फुसफुसाई गईं। इन कहानियों ने शहर के बाशिन्दों की कल्पनाशक्ति को पूरी तरह अपनी गिरफ्त में कर लिया, बहुत दिनों तक। यहाँ तक कि बूढ़ा मुरली अब कस्में खाता है कि ‘मैक्वायरी’ के बियाबान फैलाव में बकरियाँ चराते हुए उसने लालमणि वर्मा की लाश पीपल से लटकती ज़्यादा दूर नहीं सिर्फ़ सौ गज की दूसरी पर अपनी आँखों से देखी है। जबकि लाश तो पीपल पर नहीं, कमरे के अन्दर पाई गई थी। लाश असली थी या सिर्फ़ उसके घबराए हुए दिमाग का फितूर उसकी चीख़ दिल दहलाने वाली थी, जो इतने बरसों बाद भी ख़ामोश होकर समय किसी जाल में अटक गई है। शाम को दोस्तों और कुनबे के बीच वह उस मंजर का बयान करता है तो आज भी रोंगटे खड़े हो जाते हैं।
सुना गया था कि लालमणि वर्मा ने ‘मैक्वायरी’ को किसी एमिली जॉनसन से ख़रीदा था। बँगले के तिकोने माथे पर तारीख सीमेंट के हरफ़ों में अब भी लिखी है-1911, काई और कालिख में छुपी हुई। तभी से बँगला मौजूद है। तभी के उसके हरे लॉन और फूलों की क्यारियाँ, अमरूद और आम के बाग़ान, बगीचे के तब एकदम किनारे खड़े ऊँचे पेड़, अवचेतन के विचारों की तरह। जो धीमे-धीमे करके सारे हाते पर हावी होते गए, यहाँ तक कि जंगल ने आख़िर बँगले को अपना लिया जैसे वह बरसों से गुमराह उसका बच्चा हो।
रविशों पर घास उगने लगी, करीने से कटे लॉन पर नागर मोथे ने घर में घुसे भेदी के दाँव पेंच के साथ काबू पा लिया; सरो, जबाकुसुम और इन्द्रबेला की अमरवल्लरी ने आलिंगन में कस लिया। अमरवल्लरी, वह शाश्वत की प्रतिनिधि जो हर पेड़, हर झाड़ी, हर डाल पर चढ़कर फैल जाती है और चढ़कर फिर कभी नहीं उतरती, कभी नहीं मरती। जो धरती से न उपजे तो भी हर जगह हो जाती है, हर चीज़ से जन्म लेती है, हवा से, पानी से आसमान से चिड़िया से, कुछ भी नहीं से। ‘मैक्वायरी’ के चार आजाद एकड़ों पर अमरवल्लरी रातोंरात फैल गई। नीम और शीशम और जामुन, पाकड़ और पीपल और पलाश ने भी अपने-अपने गणतन्त्र कायम किए। ऊपर का आकाश डालों से घटाटोप हो उठा और ज़मीन पर बरगद ने जडों के महल खड़े किए, कई-कई महल, एक-दूसरे की अनुगूँज की तरह। देखते-देखते वीरान बँगले पर जंगल का सिक्का जम गया। लोमड़ी, सियार और साही जो बँगले के दूसरे दिनों में अपने को लिए दिए रहते थे, राहजनों की तरह खुले खजाने निकलकर टहलने लगे और चाँदनी रातों पर हुक्का हुँआ कि आवाज़ें सड़क पर चलनेवालों को भी सुनाई देने लगीं। और पक्षी तो ख़ैर हमेशा से थे, बाज और हरियल और धनेष ज़मीन और आसमान की ख़बर रखते हुए।
‘मैक्वायरी’ अब किसका है, यह भी मामला कुछ अस्पष्ट है। लालमणि वर्मा के बच्चे नहीं थे। कैलाश बनिया, जो इस इलाके का ‘पुरनिया’ है, बताता है कि उनका एक भतीजा है, विलायत में कहीं वह भी अब ख़ासा बूढ़ा हो चुका होगा। वह क्या लौटेगा। इस बीच त्यागी नाम का एक बदमाश अपने को लालमणि वर्मा का मुँहबोला बेटा कहने लगा है और यह भी सुनने में आया कि नगर विकास प्राधिकरण में कुछ गड्डमगोल करके उसने बँगला अपने नाम करवा लिया है। चिकना चुपड़ा जबान में शीरीनी घोले न जाने कहाँ से टपक पड़ा है इतने बरसों बाद। वही है जो ‘मैक्वायरी को बेच रहा है। जब से सरकार ने ज़मीन से ताल्लुक रखते क़ानून बदल दिए, ज़रूर रकम अदा करके ‘लीजहोल्ड’ ज़मीन ‘फ्रीहोल्ड’ में बदल ली गई है और कीमतें आसमान छूने लगी हैं। पूरा शहर ही जैसे बिक रहा हो। हर तरफ इश्तहार और खरीदारों की आवाजाही दलालों की रोजी चल पड़ी है और जहाँ शहर का खुला हवादार फैलाव था वहाँ ऊँची इमारतें राज़दारों की तरह सिर जोड़े खड़ी हैं।
जो ‘मैक्वायरी’ में कभी गया ही नहीं, वह उस जगह के जादू को क्या जानेगा। संयोजित जाने बूझे शहर के बीचोबीच वह एकमात्र अनजान का दायरा जिसके बीहड़ सन्नाटे ने वक्त वक्त पर मोहल्ले के सभी लड़कों को और लड़कियों को भी, कभी-कभी चुम्बकीय आकर्षण के साथ अपनी ओर खींचा है। घनी लंटाना की झाड़ियों के बीच से रास्ता, तराशता तेज़ी से धड़कता दिल लिए वह वहाँ पहुँचा है तो जगह को पहले से आबाद पाया है-काँटे पर अटका रुमाल, कान से कान तक मुस्कुराता फिंका हुआ जूता, फटी हुई नीली कमीज, आम के नीचे जल वनस्पति से उलझे पोखर में तैरता अलमुनियम का चम्मच-ऐसा नहीं कि यहाँ कोई नहीं आता।
फिर चिपकनेवाली घास और चुटपुटिया झँकाड़ पर पैर खरोंचता-चिकनी खाल पर माणिक की लड़ी वह दूसरे छोर पर पहुँचता है। कितनी उलझी हुई लम्बाई चार एकड़ जब वह अंकों की सीमा में बाँध दी गई-मगर तब बचपन के दिनों जितनी ही लम्बी। इमली की मोटी डालों के बीच छुपकर वह पढ़ता है, किताबें रोमांच से भरी, घर में मना है, और वक्त ठहर जाता है। फिर स्कूल से, जहाँ के नीरस रुटीन से उसने एक दिन चुरा लिया है, और लड़के लौटते हैं और साइकिल की घंटी उसे दूर से सुनाई दे जाती है, वह डालों से उतरता है, जैसे कि माँ की गोद से, और साइकिलवाले ‘गैंग’ के साथ हो लेता है।
वह गैंग कब का तितर-बितर हो चुका। कोई देश के उस कोने में, कोई दुनिया के। जो शहर में रह गए, वह भी कम मिलते हैं। उन दिनों की तरह नहीं जब खिड़की के बाहर धीमी सीटी की आवाज़ ‘मैक्वायरी’ के खतरों से भरे जंगल के बीच मिलने का न्योता होता था। वह जो कहीं नहीं गया, जो शहर में रह गया, बीसों साल बाद घुटने पर लगी पुरानी चोट के आकार में के जंगल को ढूँढ़ता है, और जंगल के भीतर उस इन्द्रधनुषी गेंद के जो किसी प्राचीन दोपहर में उसने वहाँ खोई थी। जो दूर उछलकर झाड़ियों में जा गिरी थी और हरे के अंदर हरे के अंदर हरे के अंदर हरे में वह ढूँढ़ता चला गया था; आज भी हरा रंग देखकर वह कुछ देर सन्नाटे में चला जाता है। नहीं मिली थी गेंद मगर अचम्भे से साँस खींचकर उसने पाया था अमरवल्लरी से ढकी झाड़ी के नीचे बिछी चाँदनी की चादर। पंखेनुमा पंखुड़ियोंवाले सफ़ेद फूल अकेले में ज़मीन पर बिखरे हुए।
झुटपुटे के वक़्त छुपनछुपाई खेलते में वह घंटों तक अमरवल्लरी में उलझा है, टूटी टहनियों से टकराया है और सूखे पत्तों की खड़खड़ाहट के पीछे साँसों को पकड़ने की कोशिश करता रहा है। हर झाड़ी में आँखें हैं, टाँगें और हाथ और जंगल के बीच अकेला खड़ा, साथियों को ढूँढ़ने में असफल, उस लम्बे क्षण की हार को वह अपनी त्वचा के नीचे आज भी महसूस करता है। और वही क्षण क्यों, वह जगह ही ऐसी है कि पूरी की पूरी उसके मानस में घुली बैठी है, किसी आत्मीय ज्ञान की तरह।
उन साथियों में से कुछ कभी-कभार दिख जाते हैं, किसी जलसे में या स्कूल में जहाँ वे बच्चों को पहुँचाने या लेने आते हैं। उस स्कूल में जहाँ वह भूगोल का अध्यापक है और बच्चों को दक्षिण अमेरिका में ओरिनोको नदी के बारे में पढ़ाता है। ओरिनोको के तट पर घने जंगल जिनकी ज़मीन से पत्थर के पठार सिर उठाते हैं, पाषाण मुणियों की तरह। मगर जंगल के नाम से उसे वही वीराना याद आता है-‘मैक्वायरी’ और जानता है कि साथियों के उम्र की चर्बी से गोलमटोल चेहरे के मुखौटों के नीचे वह मुलाकातें और खेल और अमरवल्लरी अभी मौजूद है क्योंकि अमरवल्लरी कभी मरती नहीं।
बाद में, बहुत बाद में, बदनाम ‘मैक्वायरी’ का नाम बदनाम इन्द्रानी से भी जुड़ गया। जिसको सुनसान दोपहरों में अकसर उजाड़ हाते के अन्दर जाते देखा गया-हमेशा किसी नए के साथ। उसका ज़ल्दी से सिर घुमाकर इधर-उधर सड़क पर देखना और झट से झाड़ियों में लुप्त हो जाना। इन्द्रानी, जिसकी माँ ने बचपन में ही, गरीबी के कारण उसे अनाथाश्रम के हवाले कर दिया और वह ‘मैक्वायरी’ के जंगली पौधे की तरह बढ़ती रही, बिना किसी रोक टोक के। वह किसी के भी साथ जाने को तैयार हो जाएगी, ऐसी अफवाह थी, उसके बारे में। उन्हीं दिनों बरगद के नीचे मैले चिथड़े में लिपटी पाई गई कुछ दिनों की बच्ची के खड़े नाक-नक्शे को चोरी-छिप्पे देखकर मोहल्ले के छैलों ने अपने को आश्वस्त किया कि कहीं शक्ल उनसे तो नहीं मिलती। क्या हुई वह बच्ची और कहाँ गई इन्द्रानी आख़िर में, कोई नहीं था जो तफ़तीश करता।
और तीन गोलियाँ हवा में फायर की थीं शेर अली ने जब वह ‘मैक्वायरी’ की चहारदीवारी एक छलाँग में साफ़ लाँघता हाते में घुसा था। पुलिस उसे बेतहाशा खदेड़ती हुई पीछे-पीछे आई पर ‘मैक्वायरी’ का जंगल तो उसका जाना हुआ इलाका था, मिनटों में वह हुर्र हो गया। शेर अली गुडा जो गरीबों के मददगार की तरह मशहूर था और जो किसी सेठ का खून करके भागा था। छान मारा पुलिस ने ‘‘मैक्वायरी’’ को मगर शेर अली तो जैसे छूमन्तर हो गया था। उसकी तीन गोलियों के जलते धुँए की बू और कड़ाकेदार आवाज़ हो न हो ‘मैक्वायरी’ की फ़िजा की तहों में अब भी कहीं दबी पड़ी है। स्कूल जाते में वह ‘मैक्वायरी’ के सामने से गुज़रता है तो बचपन की एक धुँधली सी छवि उसकी आँखों में उभरती है। ‘मैक्वायरी’ के बाहर पुलिया पर बैठा बीड़ी पीता शेर अली, बुर्राफ सफ़ेद मलमल का कुर्ता, घनी और नर्म मूँछें, पैनी आँखें गोरा चिट्टा। सभी को मालूम था कि वह अफ़ग़ान है।
‘मैक्वायरी’ के बिक जाने की खबर पाते ही आसपास के अपार्टमेंट में रहते लोगों ने चैन की साँस ली है। रात को वे गफलत से सो सकेंगे, अब उनका दिल हर अनजानी आवाज़ पर नहीं धड़केगा हर खटके पर वह बिस्तर में तड़बड़ाकर नहीं बैठ जाएँगे। और वह घना अँधेरा ‘मैक्वायरी’ की हदें पार करके उनके घरों की तरफ तो नहीं बढ़ेगा, जैसे कोई विशाल रोशनदाई की बोतल उलट गई हो और स्याही उन्हीं की तरफ बहती चली आ रही हो। अब वह सन्दिग्ध हाता साफ़ कर दिया जाएगा; वह हाता जो एक बड़े से प्रश्नचिन्ह की तरह उनके दुःस्वप्नों में बार-बार लौटता है। आख़िर इस घर में रात के अँधेरे में क्या कारगुज़ारी होती है। इतने अँधेरे में, साँप बिच्छू से डरे बग़ैर तो सिर्फ़ चोर उचक्के ही फिर सकते हैं। दो नम्बर का ही काम यहाँ हो सकता है, चलो, क़ानूनपसन्द मध्यवर्ग के पड़ोसियों कोइन बेहूदगियों से तो निजात मिलेगी।
सुना है अब यहाँ कमर्शियल कॉम्प्लेक्स बनेगा। ऊँची-ऊँची जगमगाती हुई ‘हाई राइज़’ इमारतें जिनके शीशे की दीवारें आइना बनकर आसमान को ललकारेंगी। ढेरों दफ़्तर इनमें खुलेंगे, शॉपिंग मॉल भी और सिनेमा घर और बरिस्ता और मैकडॉनल्ड और डिस्को। बड़े शहरों की सभी सहूलियतें जिनके लिए इस शहर के निवासी तरसते थे अब उनकी पहुँच के दायरे में आ जाएँगी। रोशनियों की बारात में वह अजनबी अँधेरे कभी लौट न सकेंगे और न ही आर.सी.सी. के पक्के रास्तों पर घास का एक तिनका भी सिर उठा पाएगा। तो फिर बुलडोजर आएँगे, आरा मशीनें और ट्रकें जिनमें ईंटे-गारे, लोहे-लक्कड़ का मलबा भर-भरके यहाँ से जाएगा। पुराने और विशाल पेड़, ढाई-ढाई फुट चौड़े तनेवाले दर्दनाक कराह के साथ गिरेंगे और उनके गिरने से भूचाल ही बस आ जाएगा। तनों की बोटियाँ की जाएँगी, अन्दर से लहू के रंग की, जो ट्रकों पर लदकर रवाना होंगी और कुछ दिनों तक हवा में कटी लकड़ी और कुचले पत्तों की बू के अलावा कुछ न होगा।
मगर इन सबके बावजूद, जब आख़िरी पेड़ का आख़िरी पत्ता यहाँ से हटा दिया जाएगा, अमरवल्लरी कहीं पर आज़ादी से फैलती रहेगी; अमरवल्लरी जो कुछ भी नहीं से हो जाती है और कभी नहीं मरती। रोशनी और जगमगाहट की एक मंजिल से दूसरी मंजिल तक सफर करते हुए शहर के निवासी कुछ देर ठिठकेंगे और पाएँगे कि मन के आदिम अँधेरों में अमरवल्लरी ने अपनी जगह ढूँढ़ ली है। क्योंकि अमरवल्लरी तो ऐसी ही होती है, वह मरती ही नहीं।
परिदृश्य
रात एकदम से हो जाया करती थी और बैंगनी आसमान झुककर नीचे के सायों को छू लेता। अँधेरे में कई रंगों की कालिमा होती थी। इमली के दरख़्त के नीचे काही मख़मल होता था जिसमें जुगनू रुपहले सितारे टाँक देते थे। जामुन के नीचे का अँधेरा जामनी रंगत लिए होता, आम की सूखी डालों पर सुरमई राख ठहर जाती, खुले आसमान में तारे नीचे लटक आते और वहाँ के अन्धकार में, जो किसी पेड़ के नीचे नहीं था, एक उजलापन, एक हल्कापन झलकता था। पेड़ों की पत्तियाँ रात में बड़ी होकर अपने ही आकार के अँधेरे को दूर, सुदूर पेड़ों की शाखाओं पर लोक लेतीं; घास अपने ऊपर स्याह खींच लेती और पक्षी अपने घोंसले के आकार के अन्धकार में दुबक जाते।
अँधेरे का पूर्ण राज्य होता था। हमारे घर के सामनेवाली सड़क के अन्तिम छोर पर कभी-कभी एक मद्धिम बल्ब की पीली रोशनी टिमटिमाती थी जो अन्धकार को बेधती नहीं, आसपास की तारीकी को और गहन कर देती थी। पहचाने आकार दिखते नहीं थे। साइकिल और रिक्शे के आने को पहले कान और फिर चेतना महसूस करती थी। अँधेरा एक संसार था; मेढकों के शोर, उल्लू के ख़ामोश पंख, झींगुरों की सारंगी और टिटिहरी की आकस्मिक पुकार से जीवन्त। कभी-कभी सियारों का ग़ोल घर के अहाते में आ जाता था। और उनका विलाप रात के सीनेको चीरता हुआ देर तक हवा पर ठहरा रहता था।
उन दिनों के बारे में सोचती हूँ तो वह इसी तरह याद आते हैं, स्याही में लिपटे हुए। रात दिन से ज़्यादा बड़ी और उस पर हावी। पर रात दिन दोनों ही कलौंछ लिए हुए, किसी भी तरह की घटना से खाली। और सारे माहौल पर छाई हुई रात की रानी की बोझिल-सी खुशबू, अतलसी चादर की तरह शीतल, सब चीज़ों में बस वही एक स्पृश्य। शायद जिसे मैं याद कर रही हूँ वह दिन था न रात न समय न स्थान बल्कि मेरे भीतर का मेरे मिजाज का ही रंग ऊबा हुआ। आत्मलीन, इन्तज़ार करता हुआ। मुझे किस चीज़ का इन्तज़ार रहता था ?
रात होते ही कमला आकर पूछती थी-‘‘बहूजी किवाड़ बन्द कर लूँ ? कोई रात आएगा तो नहीं ?’’ इस पर माँ कहतीं, ‘‘नहीं ज़रा देर रहने दो। शायद कोई आता हो !’’ जिस पर कमला कुछ देर खड़ी उन्हीं थोड़ी बेजार नज़रों से देखती रहती; कमला जिसको हमारे यहाँ बरसों से काम करने के बाद हमारे किए पर अपनी राय देने की अनकही इजाज़त मिली हुई थी। कमला जानती थी, जैसा कि मैं भी जानती थी, और माँ हम सबसे बेहतर जानती थीं कि अब इस वक़्त कोई नहीं आएगा। फिर भी इन्तज़ार की एक स्थिति बनी रहती थी; जाने कौन आ जाए।
मेरे लिए यह इन्तज़ार उस वक़्त, उस मौजूद घड़ी से कहीं ज़्यादा बड़ा सवाल था। वह मेरे होने का मेरे अस्तित्व का ही एक अंश था। मुझे हर पल, हर घड़ी किसी चीज़ का इन्तज़ार रहता था, मुझे अपनी सोलह साल की उम्र की अस्पष्टता के साथ यह नहीं मालूम था कि वह क्या चीज़ है पर मुझे लगता था कि किसी भी वक्त आज अभी कुछ ऐसा घट सकता है जो मेरे लिए महत्त्वपूर्ण होगा, जो मुझे अपने से बाहर खींचकर कोई ऐसा राह दिखा देगा मैं फौरन पहचान लूँगी कि यही मेरा चुना हुआ रास्ता है। मुझे प्रतीक्षा थी कि जिन्दगी कोई पूर्वनिश्चित चाहे मेरे लिए अज्ञात भूमिका तय करके मुझे एक तिलिस्मी घेरे में खींच लेगी-मुझे अपने आलस्य से, अपने निरन्तर घटनाहीन जीवन से चिढ़ हो गई थी-किसी संगीत मंडली में श्रोता की तरह मैं गायन शुरू होने का बेसब्री से इन्तज़ार कर रही थी।
अँधेरे का पूर्ण राज्य होता था। हमारे घर के सामनेवाली सड़क के अन्तिम छोर पर कभी-कभी एक मद्धिम बल्ब की पीली रोशनी टिमटिमाती थी जो अन्धकार को बेधती नहीं, आसपास की तारीकी को और गहन कर देती थी। पहचाने आकार दिखते नहीं थे। साइकिल और रिक्शे के आने को पहले कान और फिर चेतना महसूस करती थी। अँधेरा एक संसार था; मेढकों के शोर, उल्लू के ख़ामोश पंख, झींगुरों की सारंगी और टिटिहरी की आकस्मिक पुकार से जीवन्त। कभी-कभी सियारों का ग़ोल घर के अहाते में आ जाता था। और उनका विलाप रात के सीनेको चीरता हुआ देर तक हवा पर ठहरा रहता था।
उन दिनों के बारे में सोचती हूँ तो वह इसी तरह याद आते हैं, स्याही में लिपटे हुए। रात दिन से ज़्यादा बड़ी और उस पर हावी। पर रात दिन दोनों ही कलौंछ लिए हुए, किसी भी तरह की घटना से खाली। और सारे माहौल पर छाई हुई रात की रानी की बोझिल-सी खुशबू, अतलसी चादर की तरह शीतल, सब चीज़ों में बस वही एक स्पृश्य। शायद जिसे मैं याद कर रही हूँ वह दिन था न रात न समय न स्थान बल्कि मेरे भीतर का मेरे मिजाज का ही रंग ऊबा हुआ। आत्मलीन, इन्तज़ार करता हुआ। मुझे किस चीज़ का इन्तज़ार रहता था ?
रात होते ही कमला आकर पूछती थी-‘‘बहूजी किवाड़ बन्द कर लूँ ? कोई रात आएगा तो नहीं ?’’ इस पर माँ कहतीं, ‘‘नहीं ज़रा देर रहने दो। शायद कोई आता हो !’’ जिस पर कमला कुछ देर खड़ी उन्हीं थोड़ी बेजार नज़रों से देखती रहती; कमला जिसको हमारे यहाँ बरसों से काम करने के बाद हमारे किए पर अपनी राय देने की अनकही इजाज़त मिली हुई थी। कमला जानती थी, जैसा कि मैं भी जानती थी, और माँ हम सबसे बेहतर जानती थीं कि अब इस वक़्त कोई नहीं आएगा। फिर भी इन्तज़ार की एक स्थिति बनी रहती थी; जाने कौन आ जाए।
मेरे लिए यह इन्तज़ार उस वक़्त, उस मौजूद घड़ी से कहीं ज़्यादा बड़ा सवाल था। वह मेरे होने का मेरे अस्तित्व का ही एक अंश था। मुझे हर पल, हर घड़ी किसी चीज़ का इन्तज़ार रहता था, मुझे अपनी सोलह साल की उम्र की अस्पष्टता के साथ यह नहीं मालूम था कि वह क्या चीज़ है पर मुझे लगता था कि किसी भी वक्त आज अभी कुछ ऐसा घट सकता है जो मेरे लिए महत्त्वपूर्ण होगा, जो मुझे अपने से बाहर खींचकर कोई ऐसा राह दिखा देगा मैं फौरन पहचान लूँगी कि यही मेरा चुना हुआ रास्ता है। मुझे प्रतीक्षा थी कि जिन्दगी कोई पूर्वनिश्चित चाहे मेरे लिए अज्ञात भूमिका तय करके मुझे एक तिलिस्मी घेरे में खींच लेगी-मुझे अपने आलस्य से, अपने निरन्तर घटनाहीन जीवन से चिढ़ हो गई थी-किसी संगीत मंडली में श्रोता की तरह मैं गायन शुरू होने का बेसब्री से इन्तज़ार कर रही थी।
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